महाराणा उदयसिंह के बाद उनके पुत्र प्रतापसिंह (महाराणा प्रताप ) मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। महाराणा प्रताप ने अपने कुल की मर्यादा को कायम रखा तथा जीवन पर्यन्त मुगलों से लड़ते रहे। उन्हें अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता व धर्म की रक्षा के लिए अनेक कष्ट सहने पड़े. राज्य प्रसाद त्याग जंगलों व पहाड़ो की कन्दराओं में दुःखमय जीवन बिताना पड़ा किन्तु उन्होंने अकबर की दासता स्वीकार नहीं की हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् मुगल सेना के निरन्तर हमलों, मुगलों द्वारा मेवाड़ के अनेक स्थानों पर अधिकार तथा जंगल का कष्टमय जीवन होने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी तथा धर्म पर दृढ़ रहे। जो दृढ राखे धर्म को तिहि राखे करतार' से महाराणा प्रताप का दृढ़ विश्वास था और इसी विश्वास पर अन्त में वे भामाशाह द्वारा भेंट किये धन से सेना संगठित कर, चित्तौड़ तथा मांडलगढ़ को छोड़कर, सारे मेवाड़ पर पुनः अपना अधिकार करने में सफल हुए।
चित्तौड़ के लिए महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि...."जब तक चित्तौड़ को वापस न ले लूंगा तब तक मैं और मेरे वंशज शान-शौकत की वस्तुओं का प्रयोग नहीं करेंगे, सोने और चाँदी के चाल के स्थान पर पत्तलों (पत्तों) पर भोजन करेंगे, घास पर सोऐंगे तथा मूंछों पर ताव नहीं देंगे।"
उन्होंने अपनी इस प्रतिज्ञा को अन्त तक निभाया, क्योंकि अपने जीवनकाल में वे चित्तौड़ के दुर्ग को प्राप्त न कर सके थे। कर्नल टॉड ने महाराणा प्रताप के विषय में लिखा है...."अकबर की उच्च महत्त्वाकांक्षा, निपुणता और असीम साधन, ये सब बातें, दृढ़चित्त महाराणा प्रताप की अदम्य वीरता, कीर्ति को उज्जवल रखने वाले दृढ़ साहस और निष्कपट अध्यवसाय को दबाने में असमर्थ थी। आल्पस पर्वत की तरह अर्वली (आडावाल) में कोई भी देसी घाटी नहीं जो महाराणा प्रताप के किसी न किसी बीरकार्य, उज्जवल विजय या उससे अधिक पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपल्ली और दिवेर मेवाड़ का मेरेधन है।"
महाराणा प्रताप जीवन पर्यन्त धर्म एंव मातृभूमि की रक्षा के लिए संघर्षरत रहे तथा अन्त तक
अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। इस पर एक कवि ने कहा है
अकबर पत्थर अनेक, के भूपति भेला किया ।
हाथ न लागो हेक, पारस राण प्रतापसी ।।
महाराणा प्रताप का देहान्त 19 जनवरी 1597 को चावण्ड, जो उस समय मेवाड़ की राजधानी थी, में हुआ।
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