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चित्तौड़गढ़ ऐतिहासिक पृष्टभूमि

 


चित्तोड़ प्राचीन राजा - महाराजाओं , सम्राटों एवं शक्तिशाली योद्धाओं की हविश रहा जिसके कारण यहाँ का इतिहास बड़ा विचित्र एवं पेचीदा रहा है। बाप्पारावल के बाद चित्तौड़ में महाराणा प्रताप तक की घटनाओं एवं प्रमुख राजाओं के इतिहास का संक्षिप्त विवरण-पर्यटकों के लिए अति महत्वपूर्ण है जो प्रस्तुत है।


9 वीं 10 वीं शताब्दी में यहाँ गुजरात के परिहारों के साथ ही मालवा के परिहारों का आधिपत्य रहा था। सन् 1133 में सोलंकी जयराज ने यशोवर्मन को हराकर यहा कब्जा किया। सन् 1150 में गुजरात के चालुक्य राजा कुमारपाल का आधिपत्य था। सन् 1115 में विग्रहराज चतुर्थ ने यहाँ शासन चलाया। सन् 1207 मे पुनः चालुक्यों एवं गुहिलोत वंश का प्रभाव स्थापित हुआ। सन् 1213 से 1252 तक नागदा के पतन के बाद यहाँ जेबसिंह ने इसे राजधानी बनाकर शासन चलाया। इस पराक्रमी ने दिल्ली के घियासुद्दीन को पराजित किया था। सन् 1303 में अल्लाउरीन खिलजी ने यहाँ रावल रतनसिंह से युद्ध किया जो चित्तौड़ का प्रथम शाका कहलाया। अल्लाउद्दीन ने अपने पुत्र खिजर खां को राज्य दे दिया खिजर खां ने वापसी पर चित्तौड़ का राज काज कान्हादेव के भाई मालदेव को सौंप दिया।


मालदेव ने बाप्पा रावल के वंशज हमीन ने पुनः अपने प्राचीन राज्य को हस्तगत किया। हमीर बड़े पराक्रमी और दूरदर्शी थे उन्होंने यहां 50 वर्षों तक बड़ी योग्यता से शासन करते हुए अपने राज्य का विस्तार किया। हमीर के प्रयत्नों के कारण चित्तौड़ का गौरव पुनः स्थापित सका।


सन् 1365-1373 तक राणा क्षेत्रसिंह (खेता) और सन् 1373-1397 तक राणा लाखा (लक्ष्मणसिंह) ने हमीर के बाद शासन किया। राणा लाखा ने दुर्गों, तालाबों एवं खनिजों के विकास में योगदान किया। उन्होंने कई युद्धो में अपना पराक्रम बताकर गौरव अर्जित किया। सन् 1398 से 1433 तक मोकल का राज्यकाल रहा जिन्होंने साँभर तक अपनी सीमाओं का विस्तार किया।


चित्तौड़ पर सन् 1433 में इतिहास प्रसिद्ध महाराणा कुम्भा का राज्य प्रारम्भ हुआ। ये महाप्रतापी, कलार्मज्ञ एवं संगीतशास्त्री थे। महाराणा कुम्भा का राज्य मेवाड़ का स्वर्णकाल कहलाता है। मेवाड़ के अनेकों भव्य प्रसाद, अजेय दुर्ग और ऐतिहासिक स्मारक इनकी देन है। कुम्भा के बाद सन् 1509 में राणा सांगा का शासन और भी अधिक शक्तिशाली तथा गौरव अर्जित करने वाला था राणा सांगा परमवीर, दूरदर्शी तथा कुशल प्रशासक थे। इनके राज्यकाल में मेवाड़ राज्य का विस्तार गुजरात, मालवा और बयाना तक हुआ।


सन् 1534 में चित्तौड़ का दूसरा शासक हुआ जब गुजरात के बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण के किया। इसी प्रकार सन् 1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की जिसे मेवाड़ का तीसरा शासक कहा जाता है। चित्तौड़ के इन तीनों शासकों में राजपूत योद्धाओं ने अपने शीर्य, अपनी कर्मठता और अपने स्वातन्त्रय प्रेम का पूर्ण प्रदर्शन करते हुए अपने गौरव को अमर बनाए रखा था। इन शासकों में हजारों योद्धाओं और वीरांगनाओं का बलिदान हुआ; साथ ही भयंकर रूप से सांस्कृतिक विनाश भी हुआ।


तीसरे शाके के बाद सन् 1559 में मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ से हटाकर राणा उदयसिंह ने अरावली के मध्य पिछोला झील के पास स्थापित की जो आज का प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक नगर "उदयपुर" है।


सन् 1552 से प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप मेवाड़ की गद्दी पर बैठे, अकबर से कई युद्ध किये।


हल्दीघाटी का युद्ध प्रसिद्ध था। मेवाड़ की आन बान की रक्षा के लिए जीवन पर्यन्त जुझते रहे परन्तु


कभी अकबर के सम्मुख सर न झुकाया।

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