कुम्भश्याम का मन्दिर
सतबीस देवरी से एक छोटी सड़क दक्षिण-पश्चिम की ओर विजयस्तम्भ को जाती है। इसी सड़क पर विष्णु के वराह अवतार व कुम्मश्याम का भव्य मन्दिर है। इसका निर्माण महाराणा कुम्भा ने सन् ने 1449 ई. में करवाया था। वराह मन्दिर के सम्मुख एक ऊंची छतरी में गरूड़' की मूर्ति स्थापित है। गगनचुम्बी शिखर, विशाल कलात्मक मण्डप व प्रदक्षिणा वाला यह मन्दिर इण्डोआर्यन स्थापत्य कला का एक सुन्दर नमूना है। इस मन्दिर की भीतरी परिक्रमा के पिछले ताक में विष्णु के वराह अवतार को अंकित करने वाली मूर्ति है तथा बाहूप ताकों में त्रिविक्रम तथा शिव-पार्वती का स्थानकावस्था में सुन्दर अंकन प्राप्त होता है।
दुर्ग स्थित कुम्भश्याम का मन्दिर महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित 'कुम्भास्वामी' नामक तीन विष्णु मन्दिर में से एक है। इसी प्रकार के दो और मन्दिर कुम्भलगढ़ तथा अचलगढ़ में बने हैं। ये सभी मन्दिर प्रस्तर के हैं जिनमें प्रायः भूरे रंग के बहुला पत्थर का प्रयोग हुआ है। ये सभी मन्दिर उच्च शिखरों से अंलकृत तथा ऊँची प्रासादपीठ पर अवस्थित हैं। इसके गर्भगृह के द्वार खण्डों, मण्डप की छतों एवं स्तम्भों पर सुन्दर मूर्तियों तथा कला के अन्य शुभ प्रतीकों का सुन्दर अंकन हुआ है। बाहूय भाग में मोहक कलाकृतियों के अलावा प्रधान ताकों में विष्णु के विविध रूपों को अंकित करने वाली भव्य मूर्तियां हैं तो तत्कालीन कला-समृद्धि की परिचायक है।
'कुम्भश्याम' का मन्दिर देव मूर्तियों की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही इसमें अंकित अन्य दृश्यों से पन्द्रहवीं शती के मेवाड़ के प्रारम्भ में इसका नाम मीरा मन्दिर होना नहीं पाया जाता है। बड़ा मन्दिर 'वराह' और छोटा मन्दिर 'कुम्भस्वामी का था। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इन मन्दिरों के बारे में लिखा है कि 'कुम्भस्वामी' और 'वराह' दोनों विष्णु-मन्दिर चित्तौड़ में एक ऊँची कुर्सी पर पास-पास बने हुए हैं। एक बहुत ही बड़ा और दूसरा छोटा है। बड़े मन्दिर के प्राचीन मूर्ति मुसलमानों के समय तोड़ डाली गयी जिससे नयी मूर्ति पीछे से स्थापित की गयी है। इस मन्दिर की भीतरी परिक्रमा के पिछले ताक में वराह की मूर्ति विद्यमान है। अब लोग इसी को कुम्भा (कुम्भस्वामी) का मन्दिर कहते हैं। लोगों में यह प्रसिद्ध हो गया है कि बड़ा मन्दिर महाराणा कुम्भा और छोटा उनकी रानी मीराबाई ने बनवाया था। इसी जन श्रुति के आधार पर कर्नल टॉड ने मीराबाई को महाराणा कुम्मा की रानी लिख दिया है जो मानने योग्य नहीं है। मीराबाई महाराणा सांगा के ज्येष्ट पुत्र भोजराज की पत्नी थी। सम्भव है उपरोक्त जन श्रुति के आधार पर वराह मन्दिर को मीरा द्वारा निर्मित मानकर 'भीरा मन्दिर' कहने लगे हो, किन्तु इन दोनों मन्दिरों का निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा माना जाता है। कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति में इन मन्दिरों का उल्लेख इस प्रकार लता है।
1. "सर्वोवतिलकोयमं मुकुटवच्छ्रचित्रकूटाचले।
कुम्भस्वामिन आलयं व्यरयच्छकुम्भकर्णो नृपः
2. ""अकारयच्चादि वराहगेह मनेकधा श्रीरमणस्य मूर्ति।"
जनजीवन की झांकी भी प्राप्त होती है। उनके अध्ययन से तत्कालीन वेशभूषा, अंतकरण, केश-प्रसायन, वाद्ययन्त्रों, शस्त्रास्त्र आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
इसी मन्दिर के अहाते में एक और मन्दिर 'मीरा मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके सामने मीरा के गुरू रैदास का स्मारक' छतरी के रूप में बना है। मीरा के निज-मन्दिर के भाग में मुरली बजाते हुए श्रीकृष्ण तथा भक्ति में लीन भजन गाती हुई
मीरा का चित्र लगा है।
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