महाराणा रतनसिंह (द्वितीय) की मृत्यु के पश्चात राणा सांगा की हाड़ी रानी कर्मवती अपने दोंनो पुत्रों, विक्रमादित्य और उदयसिंह को लेकर कुम्भलगढ़ से चित्तौड़ आ गयी तथा विक्रमादित्य चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा। उसके लड़कपन व अशोभनीय व्यवहार के कारण मेवाड़ के सरदार अप्रसन्न रहने लगे। इस अवसर का लाभ उठाकर गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने सन् 1534 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। राजमाता कर्मवती चित्तौड़ की स्थिती से पूर्ण परिचित थीं। उन्होंने महाराणा विक्रमादित्य व उदयसिंह को बून्दी भेज दिया तथा मेवाड़ के सरदारों को पत्र लिखा कि- "यह किला तुम्हें सौंपा जाता है इसलिए अब तुम अपने वंश की मर्यादा का ख्याल कर जैसा उचित समझो वैसा करो" इस समाचार के पाते ही मेवाड़ के सरदार बहादुरशाह से मुकाबले के लिए तैयार हो गये तथा प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह को महाराणा के राजचिन्ह धारण कराकर, युद्ध समय तक, राणा का प्रतिनिधि नियुक्त किया। धमासान युद्ध हुआ किन्तु शत्रु का बल अधिक होने और उनके पास गोला-बारूद तथा पोर्चुगीज युद्धविशारद सेनानायक होने से राजपूत उनका मुकाबला ना कर सके। रावत बाघसिंह पाडलपोल के समीप काम आये तथा अन्य क्षत्रिय वीर अन्त-समय तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उधर दुर्ग में राजमाता कर्मवती ने 13 हजार वीरांगनाओं के साथ जौहर किया तथा किले पर बहादुरशाह का अधिकार हो गया। यह युद्ध "चित्तोड़ का दूसरा शासक" कहलाता है।
बहादुरशाह चित्तौड़ के किले में 15 दिन ही रहा होगा कि बादशाह हुमायूं की सेना उनके विरुद्ध चढ़ आयी। ऐसा प्रसिद्ध है कि हाड़ी रानी कर्मवती ने बहादुरशाह द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण किए जाने पर हुमांयू को राखी (रक्षा-बंधन) भेजकर चित्तौड़ की रक्षा के लिए लिखा था। हुमांयू भी बहादुरशाह का दमन करना चहाता था, अतः यह निमन्त्रण पाते ही वह सेना ले चित्तौड़ की और रवाना हो गया, किन्तु पहुंचने में विलम्ब होने के कारण चित्तौड़ का किला बहादुरशाह के हाथ लग गया। बहादुरशाह अपनी हार होती देख मांडू की ओर भागा हुमांयू द्वारा पीछा किये जाने पर वह दीव के टापू में पुर्तगाल वालों के पास गया, जहां से लौटते समय समुद्र में मारा गया।
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