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महाराणा कुम्भा



महाराणा कुम्भा अपने पिता महाराणा मोकल के बाद सन् 1433 ई. में राजगद्दी पर बैठे राजगद्दी पर बैठते ही उन्होनें सबसे पहले अपने पिता के हत्यारे चाचा व मेरा को मरवाया। परन्तु महपा पंवार भागकर मालवा के सुलतान की शरण में चला गया। इस महाराणा ने मालवा के सुलतान महमूद पर चढ़ाई की तथा उसे पराजित कर चित्तौड़ के दुर्ग में 6 माह तक कैद में रखा। बाद में बिना किसी शर्त उसे छोड़कर अपनी महानता का परिचय दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने शासनकाल में गुजरात, मालवा व नागौर के सुलतानों को अनेक बार पराजित किया, जिससे उनकी वीरता की धाक दूर-दूर तक फैल गयी।

महाराणा कुम्भा वीर होने के साथ-साथ चित्र एवं स्थापत्य कला के पोषक एवं सम्वर्धक थे। चित्तौड़ का दुर्ग, वहाँ से प्रसिद्ध कीर्तिस्तम्भ, कुम्भस्वामी का मन्दिर, चित्तौड़ दुर्ग का मार्ग तथा वहां के प्रवेश द्वार एकलिंगजी का मन्दिर, कुम्भलगढ़ एवं आबू व अचलगढ़ के दुर्ग, चित्तौड़गढ़ कुम्भलगढ़ और अचलगढ़ पर 'कुम्भस्वामी' नामक विष्णु-मन्दिर आदि, वर्षों बीत जाने पर भी कुम्भा की स्थापत्य कला सम्बन्धी प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन करा रहे हैं। यही नहीं मेवाड़ के 84 किलों में से 32 किलों का निर्माण कुम्भा के शासनकाल में ही हुआ था।


महाराणा कुम्भा शिल्पी ही नहीं अपितु संस्कृत भाषा के विद्वान् एवं संगीतज्ञ भी थे। उन्होनें 'संगीतराज', 'संगीतमीमांसा' तथा 'सूरप्रबन्ध' आदि गन्थों की रचना की थी जब हम उनके वीणावादन, संगीत प्रेम और काव्यरूचि के विषय में पढ़ते हैं तो हमें राजा भोज का ही नहीं, सम्राट समुद्रगुप्त का भी स्मरण हो आता है, जो महान् योद्धा होने के याथ-याथ महान् संगीतज्ञ एवं कवि थे।


महाराणा कुम्भा के शासनकाल में मेवाड़ चतुर्मुखी विकास को देखते हुए यदि हम उस काल को मेवाड़ का 'स्वर्णयुग' भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सन् 1468 ई. में कुम्भा की हत्या उनके पुत्र उदयकर्ण द्वारा की गई जिसको भाट व चारण लोग 'ऊदो तू हत्यारों' कह कर सम्बोधित करते हैं।

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 कुम्भश्याम का मन्दिर